भारत में साधु-संतों के पदविहार के दौरान सुरक्षा के लिए ठोस निर्णय लेना समय की मांग

 

✍️ स्वप्निल जैन, इंदौर।

भारत जैसे धर्मप्रधान राष्ट्र में साधु-संतों की पदविहार परंपरा हजारों वर्षों से हमारे संस्कृतिक मूल्यों और आध्यात्मिक चेतना का अभिन्न हिस्सा रही है। किंतु विगत कुछ समय से जैन मुनियों, साधुओं, साध्वियों एवं पदविहाररत संघों के साथ हो रही दुर्घटनाएं समूचे धर्मप्रेमी समुदाय को गंभीर चिंता में डाल रही हैं।

प्रश्न यह है कि आखिर कब तक हमारे तपस्वी संत इसी प्रकार असुरक्षित सड़कों पर विहार करते रहेंगे? कब तक दुर्घटनाओं की दर्दनाक खबरें संत समाज को झकझोरती रहेंगी?

🔶 समय की आवश्यकता: ठोस सरकारी नीति

इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट है कि अब केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर एक सशक्त नीति बनानी ही होगी, जो पदविहार के दौरान साधु-संतों की सुरक्षा को प्राथमिकता दे।

  • सबसे पहले, अनुशासित ट्रैफिक संचालन हेतु सख्त नियमों का निर्माण एवं उनका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए।
  • साथ ही, जिन मार्गों से साधु-संत विहार करते हैं, वहाँ स्थानीय प्रशासन को पहले से सूचित कर विशेष सतर्कता बरतनी चाहिए।

🔶 समाज की भूमिका भी अहम

यह केवल शासन का दायित्व नहीं, बल्कि धार्मिक समुदायों एवं स्थानीय नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे पदविहार मार्ग पर सजगता, सहायता और जागरूकता बनाए रखें।

  • जिन-जिन मार्गों से मुनिराज विहार करते हैं, वहाँ स्थानीय समाजजनों को भी प्रशासन के साथ मिलकर सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए।
  • साथ ही, वर्तमान सड़क परिवहन संस्कृति में साधु-संतों के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता के भाव को पुनर्जीवित करना होगा।

🔶 सनातन परंपरा की रक्षा का दायित्व

भारत की भूमि पर संतों का पदविहार केवल यात्रा नहीं, अपितु संस्कारों और तपशक्ति का संचरण है। यह परंपरा न केवल आध्यात्मिक चेतना को जागृत करती है, बल्कि समाज में शांति, संयम और सदाचार का संदेश भी देती है। अतः शासन प्रशासन, धर्मसंघ और जनमानस को एकमत होकर इस सनातन परंपरा की रक्षा हेतु आगे आना होगा।


निष्कर्ष:
भारत की धर्मप्रेमी जनता आज यह अपेक्षा करती है कि सरकारें सजग हों, समाज जागरूक हो, और हमारी तपस्वी परंपरा सुरक्षित हो। साधु-संतों की सेवा में ही समाज का कल्याण निहित है — और उनका संरक्षण प्रत्येक नागरिक का धर्म होना चाहिए।


 

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