श्री सिद्धचक्र विधान के चौथे दिन अर्घ्य समर्पण के साथ भक्ति व ज्ञान का संगम
– एनएमटी न्यूज़ एजेंसी / मनोज जैन ‘नायक’
मुरैना।
धार्मिक आस्था, संयम और आत्मशुद्धि का महापर्व श्री सिद्धचक्र विधान मुरैना के बड़े जैन मंदिर में श्रद्धा और भक्ति के साथ संपन्न हो रहा है। चतुर्थ दिवस की धर्मसभा को संबोधित करते हुए दिगम्बर जैन संत पूज्य मुनिश्री विलोकसागर जी महाराज ने कहा:
“यदि इस भवसागर से पार पाना है, तो ईश्वर के निकट रहना ही होगा। ईश्वर से दूरी, जीवन को गर्त में ले जाती है।”
मुनिश्री ने कहा कि हम प्रार्थना तो करते हैं, लेकिन जब तक उसे हृदय से स्वीकार नहीं करते, वह केवल एक रट्टू तोते के पाठ के समान होती है। सच्ची प्रार्थना वह है, जो आत्मा के भीतर से निकलकर जीवन के व्यवहार में उतरती है।
आस्था और भक्ति में है चमत्कार की शक्ति
उन्होंने श्रीराम-हनुमान प्रसंग का उदाहरण देते हुए समझाया:
“हनुमान जी द्वारा लिखे राम नाम से पत्थर तैरने लगा, जबकि स्वयं राम के फेंके पत्थर डूब गए। यह अंतर भक्ति और आस्था की गहराई का प्रमाण है।”
यदि हम अपने ईष्ट की सच्चे भाव से भक्ति करेंगे, उनके निकट रहेंगे, तो जीवन में सुख, शांति और चमत्कार भी अनुभव होंगे।
जैन साधु जीवन का तप और त्याग एक उदाहरण
मुनिश्री ने बताया कि दिगम्बर जैन साधु 24 घंटे में एक बार ही भोजन करते हैं, वह भी खड़े होकर और केवल अंजुली में ग्रहण करते हैं। यदि अन्न में कोई अशुद्धि, बाल या जीव दिखाई दे, तो वे उसी क्षण भोजन त्याग देते हैं। इसे अन्तराय कहा जाता है।
“संकल्प यह होता है कि जब तक शरीर समर्थ है, तभी तक आहार लिया जाएगा।”
यह तप, त्याग और आत्मनियंत्रण का अनुपम उदाहरण है, जो जैन जीवन दर्शन की आत्मा है।
विधान में समर्पण और श्रद्धा की झलक
धार्मिक अनुष्ठान के तहत प्रतिष्ठा निर्देशक महेन्द्रकुमार शास्त्री एवं प्रतिष्ठाचार्य राजेन्द्र शास्त्री (मगरोनी) ने विधान के पांचवें दिन के अर्घ्य भक्तों से अर्पित कराए। शास्त्रों के अर्थ भी श्रद्धालुओं को भावपूर्ण ढंग से समझाए गए।
सभा में उपस्थित इंद्र-इंद्राणियों ने मुनिराजों को शास्त्र व भेंट अर्पित कीं। वातावरण मंत्रोच्चार, आरती और श्रद्धा से सराबोर रहा।
संदेश स्पष्ट है – केवल कर्मकांड नहीं, अपितु भाव, आस्था और ईश्वर के निकटता ही जीवन को सार्थक बनाती है।