“धर्म जड़ वस्तु नहीं, चेतना है”
मुरैना। । एनएमटी न्यूज़ एजेंसी। दिगंबर जैन संतो में प्रतिष्ठित मुनिश्री विलोकसागर महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए धर्म की सच्ची व्याख्या की। उन्होंने कहा कि धर्म किसी जड़ वस्तु का नाम नहीं, बल्कि चेतना और जीवन का सार है। धर्म की रक्षा, धर्म के सिद्धांतों और संयम के मार्ग पर चलने वाले साधकों के कार्यों में सहयोग करना ही सच्चा धर्म है।
महाराज ने कहा, समाज में अगर कोई बुराई या गंदगी पनप रही है, तो हम सब कहीं न कहीं दोषी हैं। यदि हम अपने कर्तव्य ईमानदारी से निभाते, तो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होतीं। गलत का विरोध न करना, गलत का समर्थन करने के समान है। अतः हमें समय रहते गलत के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। संयमी और धर्मात्मा व्यक्ति की साधना और उपासना में सहयोग करना हमारा परम धर्म और कर्तव्य है।
संयम और सहयोग से धर्म का संवर्धन
मुनिश्री विलोकसागर ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चलते हुए कोई नियम या संयम अपना रहा है, तो हमें उसका पूरा सहयोग करना चाहिए। सहयोग से ही हम भी सहयोगी बनते हैं। वे बताते हैं कि हम अक्सर संयमी व्यक्ति की निंदा करते हैं पर उनके धर्मपालन में सहयोग नहीं करते। उदाहरण स्वरूप, यदि कोई अपने इष्ट देव के दर्शन करने का नियम रखता है पर बीमारी के कारण दर्शन नहीं कर पाता, तो हमें उसकी इस कठिनाई में मदद करनी चाहिए। यही सच्चा धर्म है।
अनजाने में हिंसा का पाप नहीं होता
उन्होंने जीवन के सामान्य व्यवहार में अनजाने में होने वाली हिंसा पर भी प्रकाश डाला। सांसारिक जीव अपने कर्मों में अनजाने में हिंसा कर देते हैं, पर यदि कार्य सावधानीपूर्वक किया गया हो तो इसका पाप नहीं लगता। क्योंकि इरादा जीवों को हानि पहुँचाने का नहीं था। मुनि जी ने कहा कि यदि आप सतर्क रहकर चलें, नीचे देखें और किसी जीव को अनजाने में भी मार दें, तो इसका दोष आपका नहीं माना जाएगा।
इसके विपरीत, जो व्यक्ति भक्ति करता है पर मन भटक रहा हो, विकारों में डूबा हो, तो वह अहिंसावादी नहीं कहलाएगा। इसलिए अपने भावों को शुद्ध रखना और कार्यों को ईमानदारी से करना अत्यंत आवश्यक है।
भावों की शुद्धि से ही आता है मंगल
महाराज ने समझाया कि भावों की विशुद्धि ही हमारे जीवन में मंगल लाती है। अपने गुरु और इष्ट के दर्शन से भी तभी लाभ होता है जब हमारे भाव शुद्ध हों। अशुद्ध भावों से ही अमंगल का बीज पैदा होता है। अतः हमें सदैव अपने भावों को अंकुश में रखते हुए नेक कार्यों में लीन रहना चाहिए। संयमी साधक की साधना और धार्मिक व्यक्ति की उपासना में सहयोग करना हमारा परम कर्तव्य है।
भावों के परिणाम का मार्मिक उदाहरण
मुनिश्री विलोकसागर ने एक गांव की कहानी सुनाई जिसमें एक पहाड़ी पर मंदिर का पुजारी और गांव में एक वेश्या रहती थी। पुजारी मंदिर में पूजा करते हुए घंटियाँ बजाता और वेश्या के दरबार में घुंघरुओं की झंकार होती। पुजारी ने वेश्या के नृत्य की लालसा करने लगा और वेश्या ने मंदिर की घंटियों की आवाज सुनकर अपने पाप और पथभ्रष्टता पर विचार किया।
इसका परिणाम यह हुआ कि पुजारी नरकगामी हुआ और वेश्या स्वर्गगामी। यह सब उनके भावों के परिणाम थे।
महावीर संदेश – मनोज जैन नायक
“धर्म केवल कर्मों का नाम नहीं, यह चेतना है, सहयोग है, और भावों की शुद्धि है। आइए, हम सब मिलकर धर्म की रक्षा करें और संयमी साधकों का सहयोग बनें।”